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प्रजाति, संख्या और मेज़बान पौधे पर निर्भर करते हुए सूत्रकृमियों के प्रकोप के विभिन्न लक्षण नज़र आते हैं। कुछ सूत्र कृमियों के कारण उनके मेज़बान पौधों में जड़ों का निर्माण बढ़ जाता है और जड़ों में गांठें या सख़्त संरचनाएं (गॉल या फोड़े) बन जाती हैं। वहीं, अन्य प्रजातियां जड़ों में बड़े पैमाने पर घाव बनाती हैं और जड़ो के आतंरिक हिस्से कमज़ोर पड़ जाते हैं। कई मामलों में, इन घावों पर कवक या मिट्टी के जीवाणुओं का भी हमला हो जाता है। पानी और पोषक तत्व पौधे के ऊपरी भागों तक नहीं पहुँच पाते हैं। संक्रमित पौधों में विकास अवरुद्ध हो जाता है और उनकी पत्तियाँ मुड़ने और विकृति के संकेतों के साथ पीली पड़ने लगती हैं। कभी-कभी तने भी प्रभावित होते हैं।
कुछ मामलों में जैविक नियंत्रक कारगर हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, कवक निमाटोफ़ोरा गायनोफ़िला और वर्टिसिलियम क्लेमिडोस्पोरियम को अनाजों में कुछ हद तक सूत्र कृमियों में कमी और/या दमन का कारण माना गया है। गेंदे की प्रजातियों, मैरिगोल्ड (टेजेटेस पेटुला) और कैलेंडुला (कैलेंडुला ओफ़िशिनलिस) के सत का मिट्टी में इस्तेमाल कुछ हद तक संख्या कम कर सकता है।
हमेशा एक समेकित नज़रिये से रोकथाम उपायों के साथ-साथ उपलब्ध जैविक उपचारों को अपनाएं। उपचार सूत्रकृमि की प्रजाति पर निर्भर करता है। कृमिनाशकों (डेज़ोमेट) का मिट्टी में धुँआ करने के लिए इस्तेमाल करके संख्या कम की जा सकती है, लेकिन यह अधिकांश किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभप्रद नहीं होता। इनमें से कुछ उत्पादों का पत्तियों पर छिड़काव किया जा सकता है।
सूत्रकृमि सूक्ष्म गोल कृमि होते हैं जो मिट्टी में रहते हैं, जहां से वे मेज़बान पौधे की जड़ों को संक्रमित करते हैं। सामान्यतः, ये लाभप्रद जीव होते हैं, किन्तु जब इनकी संख्या एक ख़तरनाक स्तर तक पहुँच जाती है, तो ये पौधों को हानि पहुँचाने लगते हैं। इनमें एक नुकीली संरचना होती है जिसका इस्तेमाल ये जड़ों और पौधों के भूमि के नीचे के भागों, कुछ मामलों में पत्तियों और फूलों में भी, छेद करके घुसने के लिए करते हैं। सूत्रकृमियों की भक्षण और जीवित रहने की कई रणनीतियाँ होती हैं और ये मिट्टी में कई वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। ये मध्यवर्ती मेज़बानों के माध्यम से अपनी संख्या बढ़ाते हैं। ये जीवाणुओं, विषाणुओं और कवकों से होने वाले रोगों को भी फैलाते हैं।