Scolytus mali
कीट
मादाएं आम तौर पर कमज़ोर या तरुण पेड़ों को अंडे देने के लिए चुनती हैं। छाल सख्त होने के कारण स्वस्थ पेड़ों पर प्रकोप होने की आशंका कम होती है। तने और शाखाओं पर प्रवेश और निकास छिद्र देखे जा सकते हैं। मादाएं चबाते हुए 5-6 सेमी लंबी (10 सेमी तक) और 2 मिमी चौड़ी एक लंबवत गैलरी बनाती हैं। ऐसा करते हुए ये सुरंगों के दोनों तरफ गुहाओं में अंडे देती हैं। अंडों से बाहर निकलने के बाद लार्वा खाते हुए छाल के नीचे थोड़ी छोटी और पतली गैलरी बनाते हैं। इसकी शुरुआत ये मातृ सुरंग से करते हैं और यह लगभग इसके लंबवत होती है। ये विशिष्ट सुरंगे माया क्विपू (माया सभ्यता की गणना संरचनाएं) की तरह होती हैं।
स्कॉलिटस माली के बड़ी संख्या में शिकारी होते हैं लेकिन बहुत कम अध्ययनों में संभावित उपयोगों की पड़ताल की गई है। पक्षियों की कई प्रजातियां स्कॉलिटस माली के लार्वा खाती हैं। आबादी पर नियंत्रण में स्पेथियस ब्रेविकॉडिस प्रजाति की ब्रेकोनिड कीट-परजीवी ततैया भी प्रभावी हो सकती हैं। कैल्सिड प्रकार की ततैया का भी उपयोग किया जा सकता है (कीरोपैकिस कोलन या डाइनोटिस्कस एपोनियस व अन्य)।
निवारक उपायों और जैविक उपचारों, यदि उपलब्ध हैं, को लेकर हमेशा एक समेकित नज़रिये से विचार करें। यदि आबादी प्रकोप स्तर पर पहुंच जाती है तो कीटनाशक उपचार आवश्यक है। हालांकि वर्तमान में फ्रूट ट्री बार्क बीटल से निपटने के लिए कोई कीटनाशक उपलब्ध नहीं है।
फलदार पेड़ों पर दिखाई देने वाले लक्षणों का कारण बीटल स्कॉलिटस माली है। इन कीटों के लार्वा जाइलोफैगस होते हैं। इसका अर्थ है कि वे छाल के नीचे के मुलायम हिस्से खाते हैं। वयस्क चमकदार लाल-भूरे होते हैं जबकि उनका सिर काला और लगभग 2.5-4.5 मिमी लंबा होता है। मादाएं आमतौर पर कमज़ोर पेड़ों को चुनती हैं और छाल में छिद्र करके अंदर की मुलायम लकड़ी में सुरंग बनाती है। मादा इस मातृ गैलरी- जो कि 10 सेमी तक हो सकती है, में अंडे देती है। अंडों से बाहर निकलने के बाद लार्वा खाते हुए छाल के नीचे थोड़ी छोटी और पतली गैलरी बनाते हैं। इसकी शुरुआत ये मातृ सुरंग से करते हैं और यह लगभग इसके लंबवत होती है। वसंत में यहीं पर लार्वा खुद को प्यूपा में बदलता है। लगातार गर्म तापमान (18-20 डिग्री सेल्सियस) पर वयस्क भृंग बाहर निकलते हैं। ये छाल में सुरंग खोदते हैं और नया चक्र आरंभ करने के लिए उड़कर अन्य उपयुक्त पेड़ों पर पहुंच जाते हैं। प्रकोप पेड़ों की मौजूदा कमज़ोर स्थिति का संकेत होता है जो कि फफूंद संक्रमण या प्रतिकूल मृदा परिस्थितियों के कारण होता है।