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वाइरस
प्रारंभिक संक्रमण के चरणों में पत्तियाँ एक पीले-हरे रंग का छींटदार स्वरूप दिखाती हैं, जो अक्सर शिराओं के समानांतर और आधार पर शुरू होता है। जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पत्तियां सूखना शुरू होती हैं, आमतौर पर किनारे से शुरू होकर मध्यशिरा तक। गंभीर संक्रमणों में, यह लक्षण धीरे-धीरे अन्य पौधों तक पहुँच सकता है और डंठलों को जब काटकर खोला जाता है, तो मृत अंश (डेड हार्ट्स) दिखाई दे सकते हैं। संक्रमित पौधों का विकास रुक जाता है, पुष्पक्रम बाँझ हो जाते हैं, और बालियाँ विकृत, छोटी और आंशिक रूप से भरी हुई होती हैं। प्रभावित पौधे कमज़ोर हो जाते हैं और अवसरवादी कवक और गोल कृमि का लक्ष्य बन सकते हैं, जिससे ऊतकों में सड़न पैदा होती है और अनाज मात्रा और गुणवत्ता में गिरावट आती है।
क्षमा करें, हम इस बीमारी के लिए किसी भी जैविक नियंत्रण उपायों के बारे में नहीं जानते हैं।
यदि उपलब्ध हो, तो जैविक उपचार के साथ निवारक उपायों के एकीकृत दृष्टिकोण पर हमेशा विचार करें। वायरस के रोगों के लिए कोई रासायनिक उपचार नहीं है। विषाणु को फैलाने वाले कीड़ों की आबादी को नियंत्रित करने के लिए कुछ कीटनाशकों को बीजों के उपचार के लिए लगाया जा सकता है और पत्तियों पर छिड़का जा सकता है।
मकई के सभी पौधे रोग के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। लेकिन, लक्षण उपस्थित विषाणुओं के संयोजन, पर्यावरणीय स्थिति और पौधे के विकास के चरण के आधार पर काफ़ी भिन्न होते हैं। बीमारी वास्तव में दो वायरस, मकई का क्लोरोटिक मोटल वायरस और एक दूसरे वायरस, ज़्यादातर सुगरकेन मोज़ाइक वायर, के संयोजन के कारण होती है। ये संक्रमण कारक मुख्य रूप से मकई के कीड़े (थ्रिप्स), जड़ों के कीड़े (रूटवॉर्म), और पत्तियों के भृंग (लीफ़ बीटल) के साथ-साथ अनाज की पत्तियों के भृंग (सिरियल लीफ़ बीटल) जैसे रागवाहकों द्वारा खेतों के बीच फैलते हैं। प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों, जैसे सूखा, मिट्टी की खराब उर्वरता और अपर्याप्त कृषि पद्धतियों से, लक्षण खराब हो जाते हैं।