Sclerophthora rayssiae var. zeae
फफूंद
आरंभिक चरण के लक्षण सबसे निचली पत्तियों पर कण या बूँद के रूप में दिखाई देते हैं जिससे वे दिखने में जली हुई लगती हैं। ये लंबाई में बढ़तीं हैं और आपस मे मिल कर सँकरी अंतः शिरा धारियाँ (3-7मिमी.) बनातीं हैं और बढ़ कर पत्ती की पूरी लंबाई तक फैल सकतीं हैं। ये पीली धारियाँ धूप से जले पीले से ले कर बैंगनी से रंग की हो जातीं हैं और अंततः भूरी हो जातीं हैं। निचली पत्तियों पर सँकरी हरितहीनता या पीली धारियों के रूप में घाव होने लगते हैं जो सुस्पष्ट किनारों वाले 3-7मिमी चौड़े होते हैं और शिराओं से घिरे होते हैं। अधिक आर्द्रता वाली परिस्थितियों में पत्तियों की निचली ओर भूरी-सफेद सी डाउनी की बढ़वार दिखाई देती है। पत्तियों की शिराएं प्रभावित नहीं होतीं हैं अतः लेमिना का फटना असामान्य होता है। अत्यधिक संक्रमण होने पर ही, पत्तियाँ फट कर गिरतीं हैं। असमय पर्णपात और बालियों का दबा हुआ निकलना रोग के बाद के चरण के लक्षण हैं। शीर्ष के अजीब रोग के विपरीत, पत्तियों में कोई भी विकृति, बौना रहना या मोटा हो जाना नहीं होता जो डाउनी मिलड्यू के लक्षण होते हैं। बीजों का विकास बाधित हो सकता है और यदि पुष्पीकरण से पहले धब्बे पड़ें तो पौधे मर भी सकते हैं।
आज तक, डाउनी मिलड्यू के लिए कोई भी जैविक नियंत्रक उपाय प्रभावी नही पाया गया है।
हमेशा निरोधात्मक उपायों के साथ यदि उपलब्ध हों तो जैविक उपचारों के साथ समन्वित उपयोग पर विचार करें। सुरक्षात्मक कवकरोधकों आपके पौधों को संक्रमण से बचा सकते हैं। बीजों का एसिलालनिन कवकरोधक मेटा लेक्सिल, से उपचार करें जिसके बाद रोपाई के 30 दिनों के पश्चात पत्तियों पर उपयोग करें। मेफेनॉक्सम का भी इसी प्रकार उपचार तथा सुरक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
लक्षणों का कारण स्क्लेरोपथोरा रायसी वार. ज़ी होता है और अधिक वर्षा (100 सेमी. वार्षिक वर्ष) और ऊष्ण तापमान (22-25 डिग्री से.) वाले इलाकों में बहुत हानिकारक हो सकता है। रोग के लिए फसल की छतरी में नमी का उच्च स्तर होना आवश्यक होता है। प्रसार हवा से फैलने वाले पत्तियों के अवशेषों, संपर्क, बीजों के संक्रमण तथा वर्षा के छींटों से होता है। जूस्पोर के लिए विकास की आदर्श परिस्थितियां 18-30 डिग्री से. पर पाई जातीं हैं। जीवाणु मिट्टी में जूस्पोर के रूप में पलता है जो 3 वर्ष तक जीवित रह सकता है।