Pythium spp.
फफूंद
आर्द्र पतन अंकुरों के विकास के दौरान दो चरणों में हो सकता है, अंकुरण से पूर्व अथवा अंकुरण के बाद। अंकुरण से पूर्व के चरण में, कवक बुआई के तुरंत बाद बीजों पर बसेरा कर लेता है जिससे बीज सड़ जाते हैं और अंकुरण बंद हो जाता है। अंकुरण के बाद के चरण में, अंकुरों की बढ़त ख़राब होती है। तना कमज़ोर और चिपचिपा दिखने लगता है क्योंकि उस पर पानी से भरे, भूरे, कत्थई या काले घाव दिखते हैं। छोटे पौधे या पेड़ हरितहीन हो जाते हैं और मुरझाने लगते हैं, अंततः गिर जाते हैं, और देखने में ऐसे लगते हैं मानो इन्हें आधार से काटकर अलग किया गया हो। मृत पौधों या मिट्टी की सतह पर सफे़द या भूरी फफूँदी जैसी बढ़त दिखाई देती है। जब अंकुरों को अधिक क्षति होती है तब दोबारा रोपण आवश्यक हो जाता है।
कवक ट्राईकोडर्मा विरिडे, ब्युवेरिया बेसीयाना या सुडोमोनस फ़्लोरोसेन्स तथा बैसिलस सबटिलिस के जीवाणुओं पर आधारित जैव-कवकनाशक का बीजों के उपचार या रोपाई के समय जड़ों के क्षेत्र के आसपास अंकुरण पूर्व के आर्द्र पतन से बचने या नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। कुछ मामलों में, कॉपर कवकनाशकों जैसे कि कॉपर ऑक्सिक्लोराइड, या बोर्डो मिश्रण से बीजों के निरोधात्मक उपचार से रोग के प्रकोप तथा तीव्रता को कम करने में सहायता मिलती है। युपेटोरियम कैनाबिनम के पौधे के सत पर आधारित घरेलू उपाय कवक के विकास को पूर्णतया बाधित कर देते हैं। "धुएं के पानी" (पौधों के पदार्थों को जला कर धुएं को पानी मे मिला कर तैयार किया जाता है) से सिंचाई का भी कवक पर प्रभाव होता है।
हमेशा निरोधात्मक उपायों के साथ जैविक उपचार, यदि उपलब्ध हो, के समवेत दृष्टिकोण पर विचार करें। रोग से बचाव का सर्वोत्तम तरीका निरोधात्मक उपाय और खेत में काम करने के समय सावधानीपूर्ण व्यवहार है। आर्द्र पतन के इतिहास वाले या जलनिकासी की समस्या वाले खेतों में निरोधात्मक उपाय के रूप में कवकनाशकों के प्रयोग पर विचार करें। अंकुरण पूर्व के आर्द्र पतन के लिए मेटालेक्सिल- एम से बीजों का उपचार किया जा सकता है। बदली के मौसम में कैप्टन @31.8% या मेटालेक्सिल-एम @75% का पत्तियों पर छिड़काव किया जा सकता है। रोपाई के समय से लेकर हर पंद्रह दिन पर कॉपर ऑक्सिक्लोराइड या कैप्टन से मिट्टी या पौधे के तने के आधार को भिंगोया जा सकता है।
आर्द्र पतन अनेक फ़सलों को प्रभावित कर सकता है और पाईथियम प्रजाति के कवक के कारण होता है, जो मिट्टी तथा पौधों के अवशेषों में अनेक वर्षों तक जीवित रह सकता है। जब मौसम गर्म और वर्षा वाला होता है, मिट्टी अत्यधिक नम होती है, और पौधों की सघन बुआई की जाती है, तब ये पनपते हैं। तनावपूर्ण परिस्थितियाँ, जैसे कि जलभराव या नाइट्रोजन का अधिक मात्रा में प्रयोग, पौधों को कमज़ोर बना देती हैं तथा रोग के विकास के लिए अनुकूल होती हैं। बीजाणुओं का प्रसार संक्रमित औज़ारों और उपकरणों तथा जूतों और कपड़ों पर लगी मिट्टी से होता है। हालांकि ये फ़सल के सम्पूर्ण जीवन चक्र में कभी भी आक्रमण कर सकते हैं, अंकुरित हो रहे बीज तथा छोटे अंकुर विशेष संवेदनशील होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि रोग एक ही स्थान पर एक मौसम से दूसरे मौसम तक प्रसारित हो, यह तब दिखता है जब और जहाँ परिस्थितियाँ संक्रमण के अनुकूल होती हैं।