Macrophomina phaseolina
फफूंद
कपास के पौधों का मुरझाना इस रोग में दिखने वाला पहला लक्षण है। इसके कारण गंभीर मामलों में सारी पत्तियां झड़ सकती हैं या पौधा गिर सकता है। पौधे का तेज़ी से मुरझाना वह विशेष लक्षण है जो जड़ गलन को इस लक्षण वाले अन्य रोगों से अलग करता है। शुरुआत में खेत में केवल कुछ पौधे प्रभावित होते हैं। फिर समय के साथ रोग इन पौधों के चारों तरफ़ घेरा बनाते हुए पूरे खेत में फैल जाता है। ज़मीन के ऊपर पौधे का मुरझाना वास्तव में रोग की बाद की अवस्था प्रदर्शित करता है। यह जड़ों के गलने और पौधे के ऊपरी हिस्सों में पानी और पोषक तत्व ठीक से नहीं पहुंच पाने का संकेत है। जल्द ही प्रभावित पौधे खड़े नहीं रह पाते और हवा चलने पर आसानी से गिर जाते हैं या आसानी से ज़मीन से उखाड़े जा सकते हैं। स्वस्थ पौधों की तुलना में रोग-पीड़ित पौधों में जड़ों की छाल पीली पड़ जाती हैं और अक्सर फट जाती हैं।
अब तक कपास के जड़ गलन पर प्रभावी नियंत्रण पाने वाले किसी जैविक एजेंट की जानकारी नहीं है। यदि आपको कोई ऐसा उपचार पता है जो कपास में रोग लगने और उसके फैलने को कम करने में मददगार है, तो कृपया हमसे संपर्क करें। फफूंद ट्राइकोडर्मा की कुछ प्रजातियां असरदार साबित हुई हैं क्योंकि वे उपचारित कपास की पौध (सीडलिंग) के जीवित बने रहने की संभावना काफ़ी बढ़ा देती हैं। इसके व्यावसायिक इस्तेमाल पर भी विचार किया जा रहा है। रोग का फैलाव सीमित करने के लिए ज़िंक सल्फ़ेट वाले कुछ फ़ार्मूलों का भी छिड़काव किया जा सकता है।
उपलब्ध जैविक उपचारों और रोकथाम उपायों को मिलाकर हमेशा एक समेकित तरीका इस्तेमाल करें। कवकनाशक थियाबेंडाज़ॉल, थिरैम, थियोफ़ैनेट मिथाइल, ज़िंक सल्फ़ेट और कैप्टान युक्त विभिन्न फार्मूलों से बीज या मिट्टी का उपचार करके जड़ गलन फैलने पर प्रभावी रूप से काबू पाया जा सकता है।
इन लक्षणों का कारण बीज और मिट्टी में बढ़ने वाला फफूंद मैक्रोफ़ोमिना फ़ैज़ियोलिना है। यह दुनिया भर में कपास का एक महत्वपूर्ण और व्यापक रोग है। यह करीब 300 अन्य पौधों को भी प्रभावित कर सकता है जिनमें मिर्च, तरबूज-खरबूज या खीरा शामिल हैं। यह रोगजनक मिट्टी में जीवित रहता है और इसे कपास की जड़ों में आसानी से विकास के मौसम की बाद की अवधि के दौरान अलग किया जा सकता है। जब पौधे सूखे की स्थिति का सामना करते हैं तब फफूंद मिट्टी में तेज़ी से वृद्धि करता है। इसीलिए यह रोग गर्मियों के मध्य में सबसे अधिक पाया जाता है और शरद ऋतु आते-आते कम होता जाता है। 15-20 फीसद नमी के साथ सूखी मिट्टी और 35 से 39° सेल्सियस तापमान वाली गर्मी इस फफूंद के लिए अनुकूलतम स्थितियां हैं।