केला

केले पर चित्तियाँ

Phyllosticta maculata

फफूंद

संक्षेप में

  • पत्तियों और फलों पर मटमैले, आम तौर पर नन्हें (कभी-कभी बड़े भी) गहरे भूरे से लेकर काले धब्बे।
  • धब्बे कतारों में गुच्छों के रूप में दिख सकते हैं और डंठलों, मध्यशिराओं, बीच की पत्तियों तथा सहपत्रों पर भी नज़र आते हैं।

में भी पाया जा सकता है

1 फसलें

केला

लक्षण

पत्तियों तथा फलों पर गहरे भूरे से काले रंग के विभिन्न आकार के धब्बे इसके विशिष्ट लक्षण हैं। पत्तियों तथा फलों के छिलके की सतह रेगमाल जैसी लगती है। छोटे धब्बे गोलाई में 1 मिमी. से भी कम होते हैं। ये कतारों में गुच्छे में होते हैं और पूरी पत्ती पर धारियों के रूप में या पत्ती की मध्यशिरा से किनारों तक, प्रायः शिराओं के साथ पाए जाते हैं। बड़े धब्बे गोलाई में 4 मिमी. तक होते हैं और चित्तियों जैसे दिखाई देते हैं। कभी-कभी इन बड़े धब्बों के केंद्र हलके रंग के होते हैं। डंठलों, मध्यशिराओं, मध्वर्ती पत्तियों तथा सहपत्रों पर भी धब्बे बन जाते हैं। गुच्छा निकलने के 2-4 सप्ताह बाद भी फल चित्तियों से प्रभावित हो सकते हैं। पहले इक्का-दुक्का धब्बे बहुत नन्हीं लाल-भूरी गहरे हरे रंग के आभामंडल वाली पानी से भरी चित्तियों के रूप में नज़र आते हैं।

सिफारिशें

जैविक नियंत्रण

चूंकि संक्रमित पत्तियाँ बीजाणुओं का प्राथमिक स्रोत हैं, फसल लेने के बाद केलों को किसी थैले से ढंक देने से एक अवरोध खड़ा हो जाता है जिससे बीजाणु फलों तक नहीं पहुंच पाते हैं। फसल में पुष्पीकरण के चरण या पहली बार दिखाई देते ही नीम तेल (1500 पीपीएम)@5मिली. सर्फ (1ग्राम) या सेंडोविट (1मिली) के साथ प्रति ली पानी मे मिला कर प्रयोग किया जा सकता है।

रासायनिक नियंत्रण

हमेशा एक समेकित दृष्टिकोण से रोकथाम उपायों के साथ-साथ उपलब्ध जैविक उपचारों को अपनाएं। वर्ष भर प्रति 2 सप्ताह या प्रतिमाह एक बार के अंतराल पर पत्तियों और फलों पर मानेब का छिड़काव करने से बीजाणुओं का फैलाव काफी कम किया जा सकता है। छिड़काव किये जाने वाले कवकनाशकों जैसे कि फॉल्पेट, क्लोरोथैलोनिल, मैन्कोज़ेब, ट्रीया ज़ोल्स, प्रोपिकोनैजॉल और स्ट्रॉबिलुरिंस परिवार के कवकनाशक का सप्ताह में दो बार छिड़काव रोग के विरुद्ध प्रभावी परिणाम देता है।

यह किससे हुआ

लक्षणों का कारण कवक फिलॉस्टिक्टा मैक्युलाटा है। यह केले के पौधों को उत्पादन चक्र की सभी अवस्थाओं पर प्रभावित कर सकता है और इसे नमी वाला बीजाणु माना जाता है क्योंकि इसके बीजाणुओं को फैलने के लिए पानी (उदाहरण के लिए वर्षा की बूँदों, बौछारों, ओस की बूँदें) की आवश्यकता होती है। केले की चित्तियां संक्रमित पौधा सामग्री तथा फलों के स्थानांतरण से भी फैल सकती हैं। चित्तियों में कवकीय संरचनाएं होती है जो बीजाणु बनाती हैं। जैसे-जैसे ये बनते हैं, बीजाणु तंतु बनाते हैं जो मेजबान में छेद करके घुस जाते हैं और कोशिकाओं के अंदर या उनके बीच बढ़ते हैं जिससे पौधे के ऊतकों की ऊपरी सतह पर नए धब्बे या दाग़ बन जाते हैं। गर्म, नम मौसम में 20 दिन बाद रोग के लक्षण दिखने लगते हैं।


निवारक उपाय

  • रोग के लक्षणों के लिए बाग़ पर लगातार नज़र रखें।
  • संक्रमित पौधों के अवशेषों को छांट कर हटा दें तथा इन्हें बाग़ से कुछ दूरी पर नष्ट दें।
  • रोगाणुमुक्त खेतों में पौधे लगाना सुनिश्चित करें।
  • उपकरणों, बीजों तथा मिट्टी में समुचित स्वच्छता बनाये रखें।

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