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खीरे का चिपचिपा तना झुलसा रोग (गमी स्टेम ब्लाइट)

Stagonosporopsis cucurbitacearum

फफूंद

संक्षेप में

  • पत्तियों पर गोल, पील-भूरे रंग से लेकर गहरे भूरे धब्बे, जो तेज़ी से बढ़ते जाते हैं।
  • तने पर भूरे चिपचिपे स्राव से नासूर बन जाते हैं।
  • फल पर छोटे, पानी से भरे धब्बे, जिनसे चिपचिपा पदार्थ रिसता है।

में भी पाया जा सकता है

5 फसलें
करेला
खीरा
खरबूज
कद्दू
और अधिक

अन्य

लक्षण

छोटे पौधों (सीडलिंग) की बीज पत्तियों और तनों पर गोल, पानी से भरे, काले या पीले-भूरे के रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। बड़े पौधों में पत्तियों पर गोल से लेकर टेढ़े-मेढ़े पीले-भूरे रंग से लेकर गहरे भूरे धब्बे दिखते हैं, अक्सर पहले किनारों पर या उनके आसपास। ये धब्बे तेज़ी-से बढ़ते हैं जब तक कि पूरी पत्ती झुलस नहीं जाती है। तने के संवहनी ऊतकों में नासूर बन जाते हैं और सतह पर आम तौर पर एक भूरा, चिपचिपा स्राव बनता है। धब्बों पर अक्सर काले सूक्ष्म बिंदु नज़र आते हैं, जो कि फफूंद के सूक्ष्म फलन-काय (फ्रूटिंग बॉडी) होते हैं। तने चारों ओर से शिकंजे में कसे हुए सकते हैं और छोटे पौधों या तरुण पौधों की मृत्यु हो जाती है। यदि संक्रमण बड़े पौधों में होता है तो दाग़ तनों पर ऊतकों के उभार के पास बहुत धीरे-धीरे बनते हैं। नासूर युक्त तने मुरझा और टूट सकते हैं, सामान्यतः मौसम के बीच में। संक्रमित फल पर छोटे, पानी से भरे धब्बे बनते हैं जो आकार में काफ़ी बड़े हो जाते हैं और चिपचिपा पदार्थ छोड़ते हैं।

सिफारिशें

जैविक नियंत्रण

रेनोट्रिया सैकैलिनेंसिस का अर्क जैविक खेती में इस्तेमाल किया जा सकता है। बैसिलस सबटिलिस स्ट्रेन QST 713 के फार्मूलेशन भी रोग के विरुद्ध प्रभावी साबित हुए हैं।

रासायनिक नियंत्रण

हमेशा एक समेकित दृष्टिकोण से रोकथाम उपायों के साथ उपलब्ध जैविक उपचारों का इस्तेमाल करें। संपर्क कवकनाशक युक्त फार्मूलेशन क्लोरोथैलोनिल, मैंकोज़ेब, मैनेब, थियोफैनेट-मिथाइल और टेबुकोनाज़ोल रोग के विरुद्ध प्रभावी हैं।

यह किससे हुआ

लक्षणों का कारण फफूंद स्टैगोनोस्पोरॉप्सिस कुकुरबिटैसीरम है जो कि इस परिवार की कई फसलों को संक्रमित कर सकता है। रोगाणु संक्रमित बीजों के अंदर या उनके ऊपर रहकर फैल सकता है। धारक पौधा न मिलने पर एक वर्ष तक शीत-शयन कर सकता है या संक्रमित फसल अवशेषों पर जीवित रह सकता है। बसंत में परिस्थितियां अनुकूल होने पर बीजाणु बनते हैं जो कि संक्रमण के प्राथमिक स्रोत होते हैं। संक्रमण की सफलता और लक्षणों के विकास में नमी, 85 प्रतिशत से ज़्यादा सापेक्षित आर्द्रता, बारिश और पत्तियों के गीले रहने की अवधि (1 से लेकर 10 घंटे) अहम भूमिका निभाते हैं। रोग के लिए सर्वोत्तम तापमान संबंधित प्रजाति पर निर्भर करते हुए अलग-अलग होता है। यह तरबूज और खीरे में 24° सेल्सियस तो खरबूजे में 18° सेल्सियस होता है। बीजाणुओं का प्रवेश संभवतः सीधे अधिचर्म (एपिडर्मिस) से होता है न कि रंध्रों या कटावों से। पौधे को क्षति, धारीदार खीरा भौंरे (बीटल्स) का हमला, एफ़िड की मौजूदगी के साथ-साथ चूर्णिल फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू) के कारण पौधों को संक्रमण आसानी से होता है।


निवारक उपाय

  • प्रमाणित स्रोतों या वायु-जनित बीजाणुओं के संक्रमण से दूर स्थित रोग मुक्त पोधों से बीज प्राप्त करें।
  • द्वितीयक संक्रमण की संभावना कम करने के लिए चूर्णिल फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू) प्रतिरोधक किस्मों का इस्तेमाल करें।
  • रोग के लक्षणों के लिए खेतों की नियमित निगरानी करें।
  • 2 वर्षीय फसल चक्र की योजना बनाकर उसका पालन करें।
  • खीरा वर्गीय फसलों का रोपण करने से पहले जंगली नींबू, करेली, या अपने आप उग आए खीरा वर्गीय पौधों को खेत से हटा दें।
  • फसल कटाई के तुरंत बाद पौधा अवशेषों को खेत की जुताई करके गहराई में दबा दें।
  • उपज के दौरान फलों को नुकसान न पहुंचाएं।
  • फसल कटाई के बाद काली सड़न (ब्लैक रॉट) से बचने के लिए फलों को 7-10° पर भंडारित करें।
  • पौधों में नमी कम से कम होनी चाहिए।

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