Blumeria graminis
फफूंद
लक्षण निचली पत्तियों से ऊपर की पत्तियों की ओर बढ़ते हैं और पौधे के किसी भी वृद्धि चरण में दिख सकते हैं। ये पत्तियों, तनों और बालियों पर सफ़ेद, रोएंदार चकत्तों के रूप में नज़र आते हैं। इन चूरे वाले क्षेत्रों से पहले पौधे पर पीली हरिमाहीन चित्तियां पड़ती हैं जो खेत की जांच के दौरान आसानी से नज़रअंदाज़ हो सकती हैं । कुछ फ़सलों में चकत्ते बड़े, उभरे दानों के रूप में दिख सकते हैं। जैसे-जैसे फफूंद अपना जीवन चक्र पूरा करता है, ये चूरे वाले क्षेत्र धूसर-तांबे के रंग के हो जाते हैं। ऋतु के अंत में, सफ़ेद चकत्तों के बीच में काली चित्तियां स्पष्ट रूप से दिख सकती हैं । इन्हें लेंस से पास से देखने पर देखा जा सकता है। निचली पुरानी पत्तियों के आसपास ज़्यादा नमी होने के कारण उन पर सबसे बुरा असर पड़ता है। सघन बुवाई, नाइट्रोजन का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और एकल कृषि भी रोग के विकास को बढ़ावा देते हैं।
जैविक खेती (बिना रासायनिक प्रयोग के) करने वाले किसानों और मालियों ने चूर्ण फफूंदी के विरुद्ध दूध से बने घोलों का इस्तेमाल सफलतापूर्वक किया है। दूध में पानी मिलाकर (आम तौर पर 1:10) रोग लगने के पहले संकेत मिलने पर, या निवारक उपाय के तौर पर भी संवेदनशील पौधों पर छिड़काव करते हैं। रोग पर नियंत्रण या उसे ख़त्म करने के लिए बार-बार हर हफ्ते इस्तेमाल की ज़रूरत पड़ती है।
हमेशा एक समेकित दृष्टिकोण से रोकथाम उपायों के साथ उपलब्ध जैविक उपचारों का इस्तेमाल करें। डाइफेनोकोनैजॉल के बाद फ्लट्रियाफॉल से बीजों का उपचार, ट्रिटिकोनैजॉल का उपयोग गेहूं को इस और अन्य फफूंद रोगों से बचाने के लिए किया जाता था । कवकनाशकों जैसे बेनोमिल, फेनप्रोपिडिन, फेरानिमॉल, ट्रियाडिमेनॉल, टेब्यूकोनैजॉल, साइप्रोकोनैजॉल और प्रॉपिकोनैजॉल से लक्षणों का उपचार किया जा सकता है। पौधों को सुरक्षित रखने का एक और तरीका उनका उपचार इस रोगाणु के विरुद्ध प्रतिरोध बढ़ाने सिलिकॉन या कैल्सियम सिलिकॉन आधारित घोलों से करना है।
लक्षणों का कारण फफूंद ब्लूमेरिया ग्रामिनिस, पूर्ण जैवपोषी (बायोट्रोफ) होता है जो केवल जीवित मेजबान पर वृद्धि और प्रजनन कर सकता है। कोई मेजबान उपलब्ध नहीं होने पर यह पेड़ पौधों के अवशेषों में किसी वस्तु की तरह शांत पड़े रहकर, अनुकूल ऋतुओं के बीच के समय में, अपनी सर्दी काट लेता है। । खाद्यान्नों के अलावा भी यह दर्जनों पौधों पर फल फूल सकता है, जिससे यह एक मौसम से दूसरे मौसम तक रह जाता है । जब परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, तो यह फिर से वृद्धि करके बीजाणु बनाता है जो बाद में के माध्यम से स्वस्थ पौधों तक फैल जाते हैं । एक बार पत्ती पर गिरने पर बीजाणु वृद्धि कर चूसने वाली संरचनाएं बना लेता है, जो मेज़बान कोशिकाओं से पोषक तत्वों को लेकर फफूंद की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। अधिक ठंडे और नम (95% नमी) हालात और बादलों वाला मौसम इसके विकास को बढ़ावा देता है। हालांकि बीजाणुओं के बढ़ने के लिए पत्ती में नमी की ज़रूरत नहीं होती बल्कि पत्ती में नमी इसकी वृद्धि बाधित कर सकती है है। 16 से 21 डिग्री सेल्सियस तापमान सबसे अच्छा होता जबकि 25 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान नुकसान पहुंचाता है। इस रोगाणु के व्यापक फैलाव और हवा से फैलने के कारण इसे अलग रखने के लिए कोई नियम बनाये नहीं जा सके हैं।