सोयाबीन

सोयाबीन के तने और जड़ों की सड़न

Phytophthora sojae

फफूंद

संक्षेप में

  • संक्रमित पौधों में विशिष्ट, जड़ों से लेकर तने के मध्य तक, लम्बे भूरे घाव फैल जाते हैं।
  • पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और मुरझा जाती हैं, जो बाद में मर जाती हैं किन्तु तने से अलग नहीं होती हैं।
  • जमी हुई मिट्टी, जिसमे जलभराव अधिक होता है, तथा भारी वर्षा में यह रोग अधिक फैलता है।

में भी पाया जा सकता है

1 फसलें

सोयाबीन

लक्षण

आरंभिक विकास की अवस्था में, फफूंद या तो बीज को नष्ट कर देता है या अंकुर को निकलने के बाद नमी से मार देता है। पौधे की बाद की विकास की अवस्था में, संक्रमित पौधों में विशिष्ट, जड़ों से लेकर तने के मध्य तक, लम्बे भूरे घाव फैल जाते हैं। मुख्य जड़ तथा तने के आंतरिक ऊतकों को हुए नुकसान के कारण पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और मुरझा जाती हैं, जो बाद में मर जाती हैं किन्तु तने से अलग नहीं होती हैं। आम तौर पर प्रारंभिक लक्षण जमी हुई मिट्टी में, जिसमें जलभराव अधिक होता है, भरी वर्षा के एक या दो सप्ताह बाद दिखाई देते हैं। प्राकृतिक प्रजातियों से उत्पन्न संवेदनशील पौधों में इस रोग के कारण बहुत अधिक नुकसान होता है।

सिफारिशें

जैविक नियंत्रण

आज तक इसका कोई अन्य वैकल्पिक इलाज पता नहीं चला है।

रासायनिक नियंत्रण

हमेशा समवेत उपायों का प्रयोग करना चाहिए जिसमें रोकथाम के उपायों के साथ जैविक उपचार, यदि उपलब्ध हो, का उपयोग किया जाए। बीजों का फफूंदनाशकों से उपचार करना पी.सोजा को नियंत्रित करने का एकमात्र रासायनिक उपचार है। बीजों का उपचार करने के लिए मेफे़नोक्साम और मेटालेक्सिल का उपयोग किया जा सकता है। कुछ मामलों में इन फफूंदनाशकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी देखी गई है।

यह किससे हुआ

फ़ाइटोफ़्थोरा सोजा एक मिट्टी में फैलने वाला रोगजनक है जो वनस्पति अवशिष्ट पर या बीज पर कई वर्षों तक ठन्डे तथा जमा देने वाले वातावरण में भी जीवित रह सकता है। यह पौधों को पूरे मौसम के दौरान, जब अवस्थाएं इसके विकास के अनुकूल हों (मिट्टी में अधिक नमी तथा 25 से 30 डिग्री के अधिकतम तापमान) पर जड़ों के द्वारा संक्रमित कर सकता है। प्रारंभिक लक्षण आम तौर पर भारी वर्षा के बाद दिखाई देते हैं। रोग ग्रस्त पौधे खेत में कहीं भी दिखाई दे सकते हैं अथवा यह निचले इलाकों या खराब जलनिकासी के इलाकों में दिखाई देते हैं।


निवारक उपाय

  • प्रमाणित रोगमुक्त बीज खरीदें।
  • प्रतिरोधक या सहनशील प्रजातियाँ उपयोग करें।
  • जलभराव से बचने के लिए मिट्टी की जलनिकासी को बेहतर बनाएं।

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