केला

फलों के शीर्ष पर सड़ांध (सिगार एंड रोट)

Trachysphaera fructigena

फफूंद

संक्षेप में

  • फल के सिरे पर एक सूखे, भूरे से लेकर काले रंग तक का सड़ा हुआ हिस्सा पैदा हो जाता है।
  • प्रभावित स्थान भूरी-काली सी फफूंद से ढका होता है, जो सिगार के जले हुए अंतिम भाग पर मौजूद राख की तरह लगता है।
  • भण्डारण या परिवहन के दौरान रोग बढ़कर सारे फल में फैल सकता है।
  • फल का आकार असामान्य हो जाता है, उनकी सतह पर फफूंद स्पष्ट रूप से दिखाई देती है और छिलके पर क्षतिग्रस्त भाग स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

में भी पाया जा सकता है

1 फसलें

केला

लक्षण

इस रोग को फलों के सिरे पर एक सूखे, भूरे से काले रंग के सड़े स्थान के पैदा होने के द्वारा पहचाना जाता है। फफूंद वास्तव में फूलों के खिलने के समय पैदा होता है और फलों के पकने की प्रक्रिया के दौरान तक बढ़ना जारी रखता है। प्रभावित स्थान भूरे-काले रंग की फफूंद से ढका होता है, जो सिगार के जले हुए अंतिम सिरे में मौजूद राख के समान दिखता है। इसी कारण इसका यह नाम पड़ा है। भण्डारण या परिवहन के दौरान रोग बढ़कर सारे फल में फैल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप ‘‘सूखने‘‘ की प्रक्रिया आरंभ होती है। फलों का आकार असामान्य हो जाता है, उनकी सतह पर स्पष्ट रूप से फफूंद दिखाई देता है और उनके छिलके पर स्पष्ट रूप से घाव दिखाई देते हैं।

सिफारिशें

जैविक नियंत्रण

फफूंद का नियंत्रण करने के लिए बेकिंग सोडा पर आधारित छिड़काव का प्रयोग किया जा सकता है। इस छिड़काव को बनाने के लिए, 2 लीटर पानी में 50 ग्राम साबुन के साथ 100 ग्राम बेकिंग सेाडा घोलें। संक्रमण को रोकने के लिए इस मिश्रण को संक्रमित शाखाओं और उनकी नज़दीकी शाखाओं पर छिड़कें। इससे स्पर्श की सतह के पीएच स्तरों में वृद्धि होती है और फफूंद की वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। कॉपर कवकनाशक स्प्रे भी प्रभावी हो सकते हैं।

रासायनिक नियंत्रण

अगर उपलब्ध हो, तो जैविक उपचारों के साथ रक्षात्मक उपायों वाले एक संयुक्त दृष्टिकोण पर हमेशा विचार करें। अक्सर इस रोग का महत्व बहुत कम होता है और इसके लिए शायद ही कभी रासायनिक नियंत्रण की आवश्यकता होती है। प्रभावित गुच्छों पर एक बार मेन्कोज़ेब, ट्रायोफ़ेनेट मिथाइल या मेटालेक्सिल का छिड़काव किया जा सकता है, तथा बाद में उन्हें प्लास्टिक की आस्तीनों से ढका जा सकता है।

यह किससे हुआ

सिगार एंड रोट केलों में होने वाला एक ऐसा रोग है जो मुख्य रूप से ट्रेचीस्फ़ेरा फ्रुक्टिजेना और कभी-कभी अन्य फफूंद (वर्टिसिलियम थीयोब्रोमे) के कारण होता है। यह हवा या बारिश की बौछारों के द्वारा स्वस्थ ऊतकों तक पहुँचता है। यह फफूंद बरसाती मौसम के दौरान फूल के खिलने के चरण में केलों पर आक्रमण करता है। यह फूल के द्वारा केले को संक्रमित करता है। वहाँ से, यह बाद में फल के सिरे तक फैल जाता है और एक सूखी सड़न उत्पन्न करता है, जो सिगार की राख के समान होती है, जिसके कारण इस रोग का नाम यह पड़ा है। यह संक्रमण फल के निकले के बाद के आरंभिक दिनों और गर्म नम स्थितियों में, विशेष रूप से अधिक ऊॅंचाई वाले स्थानों व ओट वाले स्थानों पर किए गए पौध-रोपण के दौरान, आम होता है।


निवारक उपाय

  • अगर उपलब्ध हों, तो सहनीय प्रजातियों का उपयोग करें।
  • पौधों की छतरी में अच्छा वायु-संचार बनाए रखें।
  • खेत में काम करते समय पौधों के ऊतकों को हानि से बचाएं।
  • केलों को बारिश से बचाने के लिए प्लास्टिक की आस्तीनों का प्रयोग करें।
  • छत्र में नमी को कम करने के लिए केलों की पत्तियों की छॅंटाई करें।
  • गुच्छों के बनने के बाद फूलों के सभी अवशेषों को हटाएं।
  • नियमित रूप से, मुख्यतया बरसाती मौसम के दौरान, सभी मर रही या मृत पत्तियों को हटाएं।
  • पौधों के संक्रमित भाग को जला दें या उसे ऐसे स्थान पर गाड़ दें जहाँ केले की खेती नहीं की जा रही है।
  • रोग के फैलने की संभावना को कम करने के लिए ठंडे (14° सें. पर त्वरित शीतलन), सूखे स्थानों पर भण्डारण करें।
  • काम करने व भण्डारण के दौरान रोग के फैलने की संभावना को कम करने के लिए अच्छी तरह से औज़ारों और भण्डारण केन्द्रों को साफ़ करें।

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